
====महाभारत, द्युतक्रीड़ा और धर्म ====== बचपन से सुना था कि धर्म शंकु की तरह नहीं होता जो उठता है और फिर गर्त में चला जाता है। धर्म चक्र की तरह होता है जो ऊपर उठता है, नीचे जाता है, फिर ऊपर उठता है। हर समाज के उत्थान-पतन-उत्थान की तरह धर्म का चक्र भी बदलता रहता है। और ये भी कि महाभारत काल से ही ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनो अपने स्थान से नीचे गिरते चले गये। वे पुनः उत्थान के दौर में कब आयेंगे यह आगे आने वाले समय की बात होगी। लम्बे अर्से बाद आज टेलीवीजन पर महाभारत देखते समय वही आभास हो रहा है। आज दौपदी का चीर हरण देख कर मन बहुत उद्विग्न हो उठा। सवेरे से ही मन उद्विग्न था महाराष्ट्र के पालघर की घटना (जिसमें दो साधुओं और एक वाहन चालक की भीड़ ने पीट पीट कर हत्या कर दी थी) से। उस उद्विग्नता को और भी बढ़ा दिया महाभारत की घटना ने। क्रोध, विवशता, निराशा – सभी मन में उमड़ रहे हैं। समझ नहीं आ रहा कि वे भाव कैसे व्यक्त किये जायें। कैसा जड़ समाज था। द्रोण जैसा ब्राह्मण चुप था। भीष्म जैसा वीर पुरुष विवश था। युधिष्ठिर को धर्मराज कैसे कहा गया? समझ नहीं आता। कर्ण की दानवीरता का बखान बहुत होता ...