कहीं दूर जब दिन ढल जाए साँझ की दुल्हन बदन चुराए चुपके से आए मेरे ख़यालों के आँगन में कोई सपनों के दीप जलाए, दीप जलाए कहीं दूर........

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ये पंक्तियाँ सुनने से ही हमारे मन में प्यारी सी शाम की एक आकृति बन जाती है। जिसने जिस-जिस तरीके से इस संध्या बेला को अनुभव किया होता है वो उसी प्रकार से सुहानी शाम को मन में चित्रित करता है। हमारी तो हर मौसम की अलग-अलग तरह की शाम हुआ करती थी। गर्मियों के दिनों में धूप के ओझल होते ही दुआर (घर के बहार का हिस्सा) को बुहार कर साफ करके पानी छिड़क दिया जाता था। चारपाई बाहर निकालकर बिछा दी जाती थी। तपती धरती को जब ठंडा पानी की बुँदे छुती तो ऐसी मन मोहने वाली सुगंध उठती कि उसका मुकाबला महंगे से महंगा इत्र भी न कर सके। 

घर की बहू-बेटियां दीया जलाकर अचरा से लक्ष्मी स्वरूपा दीया का माथा टेक कर मुख्य द्वार के चौखट पर रख देती थी। घर के छोटे बच्चे की जिम्मेदारी होती थी कि लालटेन के शीशे को साफ करके चमका कर उसे जला कर बरामदे में टंगी कीली पर टांग दे। अपना चारा खाकर पेट भर चुके पालतू पशु शाम होते ही मालिक का बाट जोहने लगते थे कि मालिक आये और हमें नाद से हटाकर आराम करने वाले खूटे पर बांधे। खड़े होकर चारा खाते-खाते उनके भी पैर दुखने लगते होंगे। पशुओं के देखभाल करने में लगे लोग अपने इधर-उधर के काम निपटा कर पशुओं के पीने के लिए बाल्टी में पानी भरकर रख देते थे। 

स्वयं हाथ पैर धोकर बेना (हाथ का पंखा )लेकर सभी बच्चो को बुलाकर चारपाई पर घर की मालकिन (माँ /दादी) बैठ जाती थीं। नन्हें बच्चे दादी के पास चले जाते थे तब सुकून से बहुऍ अपनी ननद के साथ मिलकर रसोई संभाल लेती थी। घर के मुखिया भी, खेत या हाट बाजार का काम निपटा कर हाथ मुँह धोकर एक लोटा पानी पीकर, वहीँ चारपाई पर बैठकर रेडियो में समाचार,गीत सुनते और भोजन बनने की प्रतीक्षा करते और जैसे हिं ठाकुरवाड़ी (गांव के मंदिर) में ठाकुर जी की आरती के बाद भोग लग जाता फिर भोजन करते। 





बारिश के मौसम की शाम तो कभी-कभी बेहद चिपचिपी उमस भरी होती थी या फिर ठंडी-ठंडी फुहार पड़ने के बाद आत्मा तक को तृप्त करने वाली ठंडी हवाएं चलती। शाम होते ही मच्छरों का बोलबाला हो जाता। दीया बत्ती करने के बाद भोजन बनाने की बहुत जल्दी रहती थी क्योंकि इस मौसम में अक्सर कीट पतंगे, पाखी उठने का डर रहता है। पशुओं के साथ-साथ अपने नजदीक भी कुछ गीले कुछ सूखे उपले व भूसे का धुआँ किया जाता था ताकि मच्छरो को भगाया जा सके। 

शाम को जब सब दुआर (दरवाजे) पर इकट्ठा होकर बैठते थे तब भुजा (मक्का /चावल /चिउड़ा/चना भुना हुआ) खाया जाता था जो हम सबका उस समय का स्नैक्स होता था। किसी दिन बाहर ही उपले जलाकर भुट्टे (मक्की) भूने जाते थे और उनका आनंद लिया जाता था जिस दिन भुट्टे खाये जाते थे उस दिन सबकी भूख कम हो जाती थी तो भोजन में बस खिचड़ी बन जाती थी। 

सबसे मस्त सर्दियों की शाम होती थी। धूप ढलते ही बुजुर्गों और बच्चों के स्वेटर निकल आते थे। घर के किशोर बच्चे या मालकिन की ड्यूटी लगती थी कि शाम होने से पहले ही घुरा (अलाव) रख दिया जाय क्योंकि दिन ढलने के बाद बच्चे तुरंत उसे जलाने के लिए मचलने लगता थे। उसी घुरा में आलू, मटर की फली, शकरकंदी डाल दिए जाते थे। बच्चे बैठकर आग सेकते और इन भुनी हुई चीजों का आनंद लेते। रसोई संभालने वाली के मजे रहते थे चूल्हे पर भोजन बनता था और उसकी आग से गर्मी मिलती रहती थी। जब सब भोजन कर लेते तब रसोई संभालने वाली हाथ पैर धोकर अपने हाथ पैर घुरा /बोरसी से सेक कर गर्म करती फिर सोने जाती थी। 

हम सबका बचपन तो ऐसे ही बीता है हमारी शाम ऐसे ही हुआ करती थी। अब शहरों में तो कब सुबह हुई कब शाम आयी पता ही नहीं चलता है। सारे मौसम, सुबह शाम, देशी भोजन इन सब का आनंद लेना है तो गांव जाइये वहाँ न सिर्फ ये महसूस कर सकेंगे बल्कि उन्हें जीकर देखेंगे।😊

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