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कहीं दूर जब दिन ढल जाए साँझ की दुल्हन बदन चुराए चुपके से आए मेरे ख़यालों के आँगन में कोई सपनों के दीप जलाए, दीप जलाए कहीं दूर........ ******************************** ये पंक्तियाँ सुनने से ही हमारे मन में प्यारी सी शाम की एक आकृति बन जाती है। जिसने जिस-जिस तरीके से इस संध्या बेला को अनुभव किया होता है वो उसी प्रकार से सुहानी शाम को मन में चित्रित करता है। हमारी तो हर मौसम की अलग-अलग तरह की शाम हुआ करती थी। गर्मियों के दिनों में धूप के ओझल होते ही दुआर (घर के बहार का हिस्सा) को बुहार कर साफ करके पानी छिड़क दिया जाता था। चारपाई बाहर निकालकर बिछा दी जाती थी। तपती धरती को जब ठंडा पानी की बुँदे छुती तो ऐसी मन मोहने वाली सुगंध उठती कि उसका मुकाबला महंगे से महंगा इत्र भी न कर सके।  घर की बहू-बेटियां दीया जलाकर अचरा से लक्ष्मी स्वरूपा दीया का माथा टेक कर मुख्य द्वार के चौखट पर रख देती थी। घर के छोटे बच्चे की जिम्मेदारी होती थी कि लालटेन के शीशे को साफ करके चमका कर उसे जला कर बरामदे में टंगी कीली पर टांग दे। अपना चारा खाकर पेट भर चुके पालतू पशु शाम होते ही मालिक का बाट जोहने लगते थे कि मालि...

श्रद्धांजलि मेरे जीवन के सबसे बड़े मार्गदर्शक को

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  #संस्मरण_पुण्य_स्मरण🪴 श्रद्धांजलि मेरे जीवन के सबसे बड़े मार्गदर्शक को🙏 कुछ रिश्ते खून के नहीं होते, लेकिन उनका स्थान जीवन में किसी अपने से भी बढ़कर हो जाता है। मेरे फूफा जी (स्वर्गीय श्री जयनारायण सिंह) मेरे लिए वही थे। जब मैं बहुत छोटा था और बाबूजी का साया सिर से उठ गया, तब ज़िंदगी जैसे थम सी गई थी। लेकिन तभी उन्होंने न सिर्फ मुझे सहारा दिया, बल्कि मुझे अपना बेटा मानकर पाला-पोसा। मैंने उनका घर नहीं, अपना घर पाया — और उनके स्नेह, अनुशासन और संरक्षण में पूरे १० -१२   साल बिताए। वो सख्त ज़रूर थे, लेकिन उनका दिल बेहद कोमल था। उनके हर डांट के पीछे मेरा भविष्य संवारने की चिंता छिपी होती थी। उन्होंने हमेशा मुझे सही राह दिखाने की कोशिश की — चाहे पढ़ाई हो, जीवन के मूल्य हों, या लोगों से व्यवहार। वे खुद बहुत साधारण जीवन जीते थे, लेकिन उनके विचार और संस्कार असाधारण थे। गाँव  पंचायत  में हर कोई उनका सम्मान करता था, क्योंकि वे सच्चाई, ईमानदारी और न्याय के प्रतीक थे। वो कहा करते थे — “जीवन में कुछ भी बनो, लेकिन अच्छा इंसान जरूर बनना।” आज जब मैं अपने जीवन में कुछ भी...

"वो प्यार था या कुछ और था .."

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"वो प्यार था या कुछ और था ..." वो मुहल्ले के जवान छैल छबीले लड़के होते थे, जिनके ऊपर बारातियों को खिलाने की जिम्मेवारी हुआ करती थी। कमबख्त ये काम बस इस लिए ले लेते के आखिरी पंगत घर मुहल्ले और रिश्ते में आई लड़कियों की होती। ये थके हुए भी ऊर्जा से भरे होते। ये चाहते उनकी पंगत बैठते शारदा सिन्हा के गाने बजने लगे , ये चाहते बैठने की जगह को चौका की तरह पूरा जाए, ये चाहते घर के चाचा,भाई बस कहीं भी चले जाए पर इधर ना आएं।  ये ऐसी जमीन पर चांदनी बिछाते कहां वो पैर रखती। फिर लड़कियां आती जैसे सौगात, जैसे जिंदगी में बसंत, जैसे देह पलाश के रंग रंग जाए लड़कियां दुप्पटे में मुंह छुपाए मुस्कुराती, लड़के पत्तल क्या बिछाते खुद बिछ जाते कढ़ाई की सबसे गरम गोल सुनहरी पुड़ियों का समय ये ऐसे पूड़ी उठा कर रखते जैसे दिल रख रहें हो। जबकि आंखें भी नहीं मिलती लेकिन इतने पास तो शायद ही कभी हो पाएंगे कसोरे में ज्यादा से ज्यादा बुनिया हर ना के बाद भी दही बूंदी के कसोरे भर दिए जाते  कुछ लड़कियां खास होती वैसे कुछ लड़के भी खास होते ये आपस के... इशारे से हमारी वाली और उसकी वाली बांट लेते ये पंगत सं...

आस्था व आंनद का विराट समागम महाकुम्भ के १४४ साल।

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आस्था व आंनद का विराट समागम महाकुम्भ के १४४ साल।    प्रयागराज में लगे हुए महाकुंभ २०२५  के संबंध में १४४  साल का जुमला बहुत चर्चा में है। सरकार ने इस आयोजन को ऐतिहासिक बताने के लिए कहा कि यह शताब्दियों में एक बार लगने वाला मेला है इसलिए अमृत स्नान किया ही जाना चाहिए। श्रद्धालुओं ने भी तय किया कि चलते हैं....   महाकुंभ के आरंभ होने के साथ ही श्रद्धालुओं का रेला चल पड़ा। सरकार और सनातन के समर्थक प्रसन्न। हर हर महादेव और हर हर गंगे की गूंज में जय श्री राम भी सम्मिलित हो गया। सब कुछ सही तरीके से चलने लगा। बेहद अनुशासित। लोग आते। डुबकी लगाते। अपने को धन्य समझते। ऐतिहासिक कुंभ है अमृत स्नान हुए। अखाड़े सजे। शंख ध्वनि हुई। सब अपने और परमार्थ के हित में चले। १४४ साल चल पड़ा। सब ऐतिहासिक था। ध्यान से देखा जाए तो जीवन का हर क्षण ऐतिहासिक है। जापानी कहावत है कि, "आप एक नदी में दुबारा स्नान नहीं कर सकते। जो क्षण जीवन में आया, वह दुबारा नहीं आएगा।"  हर क्षण ऐतिहासिक है। कोई भी घटना दोहराई नहीं जा सकती। इस प्रकार कोई भी आवृत्ति असंभव है। फिर भी १४४ साल का जुमला चल ग...
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बचपन के दिन भुला न देना......    'वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी' जगजीत-चित्रा सिंह द्वारा गाई गई ग़ज़ल की ये पंक्तियाँ सुनते ही हम सब कई बरस पीछे अपने बचपन की यादों में समा जाते हैं। बचपन जहाँ केवल मस्ती ही मस्ती होती है, हम सबका बचपन तितली की तरह उड़ता, चिड़िया की तरह चहकता और गिलहरी की तरह फुदकता हुआ था। सुख और दु:ख की घनी छाँव क्या होती है, इसकी हमें खबर न थी, सावन की पहली फुहार का बेताबी से इंतजार रहता था हम सबको, बूँदें धरती पर गिरी नहीं कि हथेली उसे सहेजने के लिए अपने आप ही आगे बढ़ जाती थी।  पलकों को छूती हुई वे बूँदें मन को भिगो जाती थी बारिश में भीगने का ऐसा जुनून होता था कि भरी दोपहरी में जब घर के सारे लोग सो रहे हों, तब चुपके से माँ की ओट छोड़ कर दबे पाँव एक कमरे से दूसरा कमरा पार करते हुए, धीरे से किवाड़ खोल कर घर की देहरी (दरवाजा) लांघ जाते थे। देहरी लांघने में खतरा हो, तो दीवार फांदने में देर नहीं करते थे, फिर एक के बाद एक सबको आवाज देते, किसी को खिड़की से पुकारते, तो किसी को पक्षी या जानवर की आवाज के इशारे से पुकारते घर के बाहर ले आते थे, फिर लगता था मस्ती क...
एक स्त्री अपने जीवन में दो पुरूषों को सबसे ज्यादा समझ सकती है...! ************************************************** उनसे प्रेम करते हुए एक अपने बेटे को और दूसरा उसे जिससे उसने बिना किसी शर्त बिना किसी चाह के सिर्फ और सिर्फ प्रेम किया हो, ये वो दो पुरूष होते हैं जिसमें एक का जन्म उसकी कोख से होता है और दूसरे का जन्म उसके मन की कोख से होता है। प्रेमी और पुत्र प्रेम के प्रेम में स्त्री सदा हारकर ही खुद की जीत स्थापित करती है, परन्तु ये दोनों ही पुरूष सबसे ज्यादा इस बात से अनभिज्ञ होते हैं या उनमें इस प्रेम को समझने का बोध नहीं होता। यह एक रिश्ता ऐसा होता है जिसकी हर बात को हम मन से ही नहीं शरीर से शिराओं से, अपनी त्वचा तक में महसूस कर पाते हैं। इसके लिए स्पर्श ही, भाषा का नहीं भाषा भी स्पर्श का कार्य करती है। मन से मस्तिष्क तक की सभी इन्द्रियां प्रेम की अनुभूतियों में संचित होती है.... जब तक कोई औरत मां  नहीं  बन जाती वो अपने आपको पूर्ण औरत नही समझती हैं। अतः एक औरत की पूर्णता उसके मां बनने से जुड़ी हुई है।एक औरत के लिए मां बनना एक दैवीय अनुभव होता हैं।जितनी खुशी उसको मां बनने से...
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  माँ की कोई जाति नहीं होती ! ===================== ''जाति है कि जाती नहीं''.... ,  जाति नहीं मानने वालों की भी एक जाती है। उसने पूछा तेरी जाति क्या है? मैंने भी पूछा : एक मां की या एक महिला की ..? उसने कहा - चल दोनों की बता .. और कुटिल मुस्कान बिखेरी । मैंने भी पूरे धैर्य से बताया....... एक महिला जब माँ बनती  है तो वो जाति विहीन हो जाती है.. उसने फिर आश्चर्य चकित होकर पूछा - वो कैसे..? मैंने कहा ..... जब एक मां अपने बच्चे का लालन पालन करती है, अपने बच्चे की गंदगी साफ करती है , तो वो शूद्र हो जाती है.. वो ही बच्चा बड़ा होता है तो मां बाहरी नकारात्मक ताकतों से उसकी रक्षा करती है, तो वो क्षत्रिय हो जाती है.. जब बच्चा और बड़ा होता है, तो मां उसे शिक्षित करती है, तब वो ब्राह्मण हो जाती है.. और अंत में जब बच्चा और बड़ा  होता है तो मां उसके आय और व्यय में उसका उचित मार्गदर्शन कर अपना वैश्य धर्म निभाती है .. तो हुई ना एक महिला या मां जाति विहीन.. मेरा उत्तर सुनकर वो अवाक् रह गया । उसकी आँखों में महिलाओं या माँओं के लिए सम्मान व आदर का भाव था और मुझे समस्त माताओं और महिलाओं ...