
कहीं दूर जब दिन ढल जाए साँझ की दुल्हन बदन चुराए चुपके से आए मेरे ख़यालों के आँगन में कोई सपनों के दीप जलाए, दीप जलाए कहीं दूर........ ******************************** ये पंक्तियाँ सुनने से ही हमारे मन में प्यारी सी शाम की एक आकृति बन जाती है। जिसने जिस-जिस तरीके से इस संध्या बेला को अनुभव किया होता है वो उसी प्रकार से सुहानी शाम को मन में चित्रित करता है। हमारी तो हर मौसम की अलग-अलग तरह की शाम हुआ करती थी। गर्मियों के दिनों में धूप के ओझल होते ही दुआर (घर के बहार का हिस्सा) को बुहार कर साफ करके पानी छिड़क दिया जाता था। चारपाई बाहर निकालकर बिछा दी जाती थी। तपती धरती को जब ठंडा पानी की बुँदे छुती तो ऐसी मन मोहने वाली सुगंध उठती कि उसका मुकाबला महंगे से महंगा इत्र भी न कर सके। घर की बहू-बेटियां दीया जलाकर अचरा से लक्ष्मी स्वरूपा दीया का माथा टेक कर मुख्य द्वार के चौखट पर रख देती थी। घर के छोटे बच्चे की जिम्मेदारी होती थी कि लालटेन के शीशे को साफ करके चमका कर उसे जला कर बरामदे में टंगी कीली पर टांग दे। अपना चारा खाकर पेट भर चुके पालतू पशु शाम होते ही मालिक का बाट जोहने लगते थे कि मालि...